पौराणिक कथाः प्रभु श्रीराम सहित चारो भाई जब आधीरात को पहुंचे पलटू बनिया के घर

एक बार की बात है। अयोध्या में कनक भवन एवं हनुमानगढ़ी के बीच में स्थित दशरथ महल में बहुत पहले एक सन्त रहा करते थे जिनका नाम था रामप्रसाद जी। उस समय अयोध्या में इतनी भीड़ भाड़ नहीं होती थी। रामप्रसाद जी ही उस समय दशरथ महल के कर्ता धर्ता थे। दशरथ महल में एक मन्दिर है जिसमें पत्नियों सहित चारों भाई श्रीराम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न एवं हनुमान जी विराजमान हैं और उनकी सेवा होती है। दशरथ महल सब के सब संत रहते थे तो नित्य मन्दिर में जो भी थोड़ा बहुत चढ़ावा आता था उसी से मन्दिर एवं आश्रम का खर्च चला करता था। मन्दिर में प्रतिदिन जो चढ़ावा आता था उसे पलटू नाम के बनिया को भिजवाया जाता था और उसके बदले बनिया मंदिर थोड़ा बहुत जो भी राशन आता था भेज देता था। उसी राशन का भोग प्रसाद बनकर भगवान को भोग लगता था और जो भी सन्त आश्रम में रहते थे वे प्रसाद भोजन के रूप में ग्रहण करते थे।

एक बार प्रभु की ऐसी लीला हुई कि मन्दिर में कुछ चढ़ावा आया ही नहीं। अब इन साधुओं के पास कुछ धन तो था नहीं, तो क्या किया जाए। कोई उपाय ना देखकर रामप्रसाद जी ने दो साधुओं को पलटू बनिया के पास भेज के कहलवाया कि भइया आज तो कुछ चढ़ावा आया नहीं है। अतः थोड़ा सा राशन उधार दे दो कम से कम भगवान को भोग तो लग ही जाए। पलटू बनिया ने जब यह सुना तो उसने यह कहकर मना कर दिया कि मेरा और महन्त जी का लेना देना तो नकद का है मैं उधार में कुछ नहीं दे पाऊँगा।

रामप्रसाद जी को जब यह पता चला तो जैसी भगवान की इच्छा कहकर उन्होंने भगवान को उस दिन जल का ही भोग लगा दिया। सारे साधु भी जल पी के रह गए। प्रभु की ऐसी परीक्षा थी कि रात्रि में भी जल का ही भोग लगा और सारे साधु भी जल पीकर भूखे ही सोए। वहाँ मन्दिर में नियम था कि शयन कराते समय भगवान को एक बड़ा सुन्दर पीताम्बर ओढ़ाया जाता था तथा शयन आरती के बाद रामप्रसाद जी नित्य करीब एक घण्टा बैठकर भगवान को भजन सुनाते थे। पूरे दिन के भूखे रामप्रसाद जी बैठे भजन गाते रहे और नियम पूरा करके सोने चले गए।

धीरे धीरे रात बीतने लगी। करीब आधी रात को पलटू बनिया के घर का दरवाजा किसी ने खटखटाया। वो बनिया घबरा गया कि इतनी रात को कौन आ गया। जब आवाज सुनी तो पता चला कुछ बच्चे दरवाजे पर शोर मचा रहे हैं, अरे पलटू, पलटू सेठ, अरे दरवाजा खोल। उसने हड़बड़ा कर खीझते हुए दरवाजा खोला। सोचा कि जरूर ये बच्चे शरारत कर रहे होंगे। अभी इनकी अच्छे से डांट लगाऊँगा। जब उसने दरवाजा खोला तो देखता है कि चार लड़के जिनकी अवस्था बारह वर्ष से भी कम की होगी। एक पीताम्बर ओढ़ कर खड़े हैं। वे चारों लड़के एक ही पीताम्बर ओढ़े थे। उनकी छवि इतनी मोहक, ऐसी लुभावनी थी कि ना चाहते हुए भी पलटू का सारा क्रोध प्रेम में परिवर्तित हो गया और वह आश्चर्य से पूछने लगा, बच्चों तुम कौन हो और इतनी रात को क्यों शोर मचा रहे हो। बिना कुछ कहे बच्चे घर में घुस आए और बोले हमें रामप्रसाद बाबा ने भेजा है। ये जो पीताम्बर हम ओढ़े हैं। इसका कोना खोलो इसमें सोलह सौ रुपए हैं निकालो और गिनो। ये वो समय था जब आना और पैसा चलता था। सोलह सौ उस समय बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी।

जल्दी जल्दी पलटू ने उस पीताम्बर का कोना खोला तो उसमें सचमुच चांदी के सोलह सौ सिक्के निकले। प्रश्न भरी दृष्टि से पलटू बनिया उन बच्चों को देखने लगा। तब बच्चों ने कहा, इन पैसों का राशन कल सुबह आश्रम भिजवा देना। अब पलटू बनिया को थोड़ी शर्म आई। हाय! आज मैंने राशन नहीं दिया, लगता है महन्त जी नाराज हो गए हैं इसीलिए रात में ही इतने सारे पैसे भिजवा दिए। पश्चाताप, संकोच और प्रेम के साथ उसने हाथ जोड़कर कहा, बच्चों मेरी पूरी दुकान भी उठा कर मैं महन्त जी को दे दूँगा तो भी ये पैसे ज्यादा ही बैठेंगे। इतने मूल्य का सामान देते देते तो मुझे पता नहीं कितना समय लग जाएगा।

बच्चों ने कहा ठीक है, आप एक साथ मत दीजिए थोड़ा थोड़ा करके अब से नित्य ही सुबह सुबह आश्रम भिजवा दिया कीजिएगा। आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना मत कीजिएगा। पलटू बनिया तो मारे शर्म के जमीन में गड़ा जाए। वो फिर हाथ जोड़कर बोला, जैसी महन्त जी की आज्ञा। इतना कह सुन के वो बच्चे चले गए लेकिन जाते जाते पलटू बनिया का मन भी ले गए।

इधर सवेरे सवेरे मंगला आरती के लिए जब पुजारी जी ने मन्दिर के पट खोले तो देखा भगवान का पीताम्बर गायब है। उन्होंने ये बात रामप्रसाद जी को बताई और सबको लगा कि कोई रात में पीताम्बर चुरा के ले गया। जब थोड़ा दिन चढ़ा तो गाड़ी में ढेर सारा सामान लदवा के कृतज्ञता के साथ हाथ जोड़े हुए पलटू बनिया आया और सीधा रामप्रसाद जी के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा। रामप्रसाद जी को तो कुछ पता ही नहीं था। वे पूछें क्या हुआ अरे किस बात की माफी मांग रहा है। पर पलटू बनिया उठे ही ना और कहे, महाराज रात में पैसे भिजवाने की क्या आवश्यकता थी मैं कान पकड़ता हूँ आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना नहीं करूँगा और ये रहा आपका पीताम्बर वो बच्चे मेरे यहाँ ही छोड़ गए थे, बड़े प्यारे बच्चे थे इतनी रात को बेचारे पैसे लेकर आ भी गये थे। आप बुरा ना मानें तो मैं एक बार उन बालकों को फिर से देखना चाहता हूँ। 

रामप्रसाद जी ने जब वो पीताम्बर देखा तो पता चला ये तो हमारे मन्दिर का ही है जो गायब हो गया था। अब वो पूछें कि, ये तुम्हारे पास कैसे आया? तब उस बनिया ने रात वाली पूरी घटना सुनाई। अब तो रामप्रसाद जी भागे जल्दी से और सीधा मन्दिर जाकर भगवान के पैरों में पड़कर रोने लगे कि हे भक्तवत्सल मेरे कारण आपको आधी रात में इतना कष्ट उठाना पड़ा और कष्ट उठाया सो उठाया मैंने जीवन भर आपकी सेवा की मुझे तो दर्शन ना हुआ और इस बनिए को आधी रात में दर्शन देने पहुँच गए।

जब पलटू बनिया को पूरी बात पता चली तो उसका हृदय भी धक् से होके रह गया कि जिन्हें मैं साधारण बालक समझ बैठा वे तो त्रिभुवन के नाथ थे, अरे मैं तो चरण भी न छू पाया। अब तो वे दोनों ही लोग बैठ कर रोएँ। इसके बाद कभी भी आश्रम में राशन की कमी नहीं हुई। आज तक वहाँ सन्त सेवा होती आ रही है। इस घटना के बाद ही पलटू बनिया को वैराग्य हो गया और यह पलटू बनिया ही बाद में पलटूदास जी के नाम से विख्यात हुए।

रामप्रसाद जी की व्याकुलता उस दिन हर क्षण के साथ बढ़ती ही जाए और रात में शयन के समय जब वे भजन गाने बैठे तो मूर्छित होकर गिर गए। संसार के लिए तो वे मूर्छित थे किन्तु मूर्च्छावस्था में ही उन्हें पत्नियों सहित चारों भाइयों का दर्शन हुआ और उसी दर्शन में माता जानकी जी ने उनके आँसू पोंछे तथा अपनी ऊँगली से इनके माथे पर बिन्दी लगाई जिसे फिर सदैव इन्होंने अपने मस्तक पर धारण करके रखा। उसी के बाद से इनके आश्रम में बिन्दी वाले तिलक का प्रचलन हुआ। वास्तव में प्रभु चाहें तो ये अभाव ये कष्ट भक्तों के जीवन में कभी ना आए परन्तु प्रभु जानबूझकर इन्हें भेजते हैं ताकि इन लीलाओं के माध्यम से ही जो अविश्वासी जीव हैं वे सतर्क हो जाएं उनके हृदय में विश्वास उत्पन्न हो सके। जैसे प्रभु ने आकर उनके कष्ट का निवारण किया ऐसे ही हमारा भी कर दें।

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